श्वेत पट पर श्याम चित्रित होली
निद्रा है, स्वप्न भी है
पर जो अंतरात्मा झंझोरती
वो वास्तविकता से सामना भी है
बेमन से दफ्तर की ओर बढ़ते कदम
अनायास ध्यान आया
रँगो का त्यौहार है
होंठो पे एक मुस्कुराहट भी
अनायास ही झलकी
ख़ुशी निश्चिंततः ना थी
हालाँकि ये गम की हँसी भी ना थी
तो आखिर माज़रा क्या था?
वो कुछ नहीं, बस बचपन
और बीता वक़्त
और बीता वक़्त
पास आ कर
जरा मखौल कर गए थे
उसी क्रिया की प्रतिक्रिया थी
मखौल ही तो था
वरना होली दिवाली में
ये दीवालापन मस्तिष्क का
सवाल ही नहीं था
सर झटक प्रयास किया
खुद को वास्तविकता में वापस लाने का
लेकिन ये कमबख्त सोच
अपने घोड़े आज किसी
और दिशा में दौड़ाने को अड़ी थी
आवाज़ दी उसने
क्या होली भाई तुम्हारे लिए?
यही अब जिंदगी की सच्चाई है
कल में झूलना छोड़ दो
इसी में तुम्हारी भलाई है
मैंने सर झुका
नीम के काढ़े जैसे
उस अंतरात्मा की आवाज़
पर हामी भर दी
और बोझिल क़दमों से
अपने गंतव्य की ओर बढ़ा
दुहाई हो,
इस श्वेत-श्याम जीवन की
मैं बड़बड़ाया
तभी, हाँ, बिलकुल तभी,
बिजली के कौंध सा
आँखों के सामने
अनगिनत रंगो के मेल का
एक जोरदार धमाका हुआ
और मेरी दृष्टि
स्वयतः फैलती चली गयी
ये रंग, जाने-पहचाने से थे
अरे! इनसे तो बहुत पुराना नाता था,
मैं कैसे भूल गया?
आज भी याद है
मोर को नृत्य करते
जब पहली बार देखा था
और इन रँगो से रूबरू हुआ
कदम ठिठक गए
इस बेमौके की याद पर
और सोच फिर से
सैर को निकली
लेकिन तभी
एक दूसरी आवाज़ उठी
मेरे अंतरात्मा से ही
और कहा
मैं ही आदि, और मैं ही अंत
बचपन से तुमको
है इसकी खबर
फिर किसने कहा
श्वेत-श्याम की होली
होली नहीं होती?
मैंने ही तो रचा है
आखिरकार, वो भी दो रंग हैं
तुम भेदभाव क्यों करते हो?
मत करो
बस आनंद लो
क्या पता, आने वाला कल
इन दो रँगो की ही
बुनियाद पर बना हो?
बस आनंद लो...
वो आवाज़, हाँ वही आवाज़
पहले भी कई दफा सुनी थी
अनजान हो कर भी
जानी-पहचानी सी थी
मन तो अभी भी बेमन था
लेकिन दिल की धड़कनों ने
कुछ अलग सा रुख ले लिया
होंठों पे फिर एक
मुस्कुराहट थी
और क्यों ना हो भई
होली का त्यौहार जो था