जिंदगी यूँ एक स्पर्धा बन गयी है,
हम आज का सोचते, आज में ही जीते,
अपनी सफलताओं पे
गर्व करते, मुस्कुराते, इठलाते,
और हो भी क्यूँ न।
यही तो हमेशा सीखा है हमने,
जिंदगी एक दौड़ है,
जो जीता, वो सिकंदर,
बाकी सारे अंधकार के अंदर।
बस इस भागदौड़ में
अक्सर ज़ेहन से ये बात निकलती,
की किसने इस स्पर्धा के लिए
हमे तैयार किया,
हमे अपने स्नेह की सानिध्य में रखते
अपने आवरण से बाहर का दृश्य दिखाया
हाँ, वो माँ ही तो थी।
दयालु, प्यारी, मासूम
अगणित अलंकार हैं माँ के लिए।
लेकिन ज़रा गौर फरमाओ,
तो कही निडर, निर्भय, और निर्भीक है माँ,
जो कवि अपनी कविताओं में कहना भूल गए शायद।
आखिर कौन है ऐसा और
जो अपने हृदय के टुकड़े को
सालों के लिए खुद से दुर जाने दे
कौन है ऐसा और
जो अपना पूरा जीवन
सिर्फ इसी ख्वाब में व्यतीत करे
की उसके बच्चे दुनिया मे
अपना परचम लहराए।
ये माँ ही तो है।
और कौन भला।
तभी शायद कहते हैं
माँ को ईश्वर के
ऊपर का दर्जा प्राप्त है
वर्ना इतना निस्वार्थ प्यार
इन्सानी चरित्र के परे है।
माँ है तो
अस्तित्व है
माँ नही
तो सब विलीन