हो चली शुरुआत
मिल गए गर सपने जो धूल में
तो क्या छुट गयी आस
अभी न जाने पल हैं कितने
मायने जो रखते ख़ास
उठो रे मानुष अब तुम जागो
निराशा के बंधन को फेंको
सारी कठिनायियो को दे दो मात
अब हो चली शुरुआत
अब हो चली शुरुआत
मुश्किलों को गले लगाने की
अब हो चली शुरुआत
कंटका - कीर्ण रस्तों पे चलने की
अब इनसे डरना है क्या
अब इनसे छिपना है क्या
पानी है जो मंजिल अपनी
तो फिर इनसे बचना है क्या
सफलता है नहीं नपती
उन्चायियो से जो तुमने पाई
सफलता उससे है नपती
ठोकरे जो उन तक तुमने खायी
याद करोगे एक ये भी दिन
जब सारी दुनिया थी अन्धकार में लीन
याद आयेगी तब वो बात
जब हुई थी एक शुरुआत
very inspirational words bro....m sure this poem resembles your current position strongly ...isnt it???
ReplyDeleteyeah bhaia...and luckily, you are one of those few people with whom i have shared my experiences of life and who understands me.....
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