दुःख
दुःख होता है मुझे
जब देखता हूँ अपने आस पास,
चहुँ ओर है अन्धकार व्याप्त
साहित्य के जो हुआ करते थे नायक,
हो रहा उनका अस्तित्व समाप्त.
दुःख होता है मुझे
जब देखता हूँ किशोरों को
कल के जो हैं भारत,
समझते साहित्य को गारत.
क्या मुंशी प्रेमचंद, क्या तोल्स्तोय,
क्या थे दिनकर और कौन शक्स्पीअर.
हँसते इन नामों पर,
उड़ाते इनका मजाक.
जो भी था मूल्य इनका,
हो रहा अब खाक.
कौन समझाए इन्हें
कौन ये बताये.
साहित्य के प्रकाश थे वो
जिनकी प्रज्वलित ज्योति को,
फिर कोई कैसे जलाये.
दुःख होता है मुझे
जब देखता हूँ
आज के समाज को
छात्र वर्ग को
शिक्षक गणों को.
नहीं रही अब उनमे
वह जोशो खरोश.
जो कर देता था
साहित्य पंडितो को मदहोश.
दुःख होता है मुझे
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